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कैसे करें मटर की खेती | Cultivation of Peas In Hindi |
मटर की खेती कैसे करें?
आधुनिककाल में मटर का प्रयोग हरी अवस्था में (मटर की फलियों के रूप में) सब्जी के लिए तथा सूखे दानों का प्रयोग दाल के लिए किया जाता रहा है। दिनों-दिन मटर का उपयोग बढ़ता ही जा रहा है। इन उपयोगों के अलावा दाने वाली मटर का प्रयोग जानवरों के रातब (ration) के रूप में किया जाता है।
मटर के हरे पौधों का उपयोग जानवरों के लिए हरा चारा व हरी खाद बनाने के लिए किया जाता है। पकी हुई मटर की फलियों से भूसा और दाना दोनों ही प्राप्त हो जाते हैं। दानों का प्रयोग दाल, सूप व रोटी आदि के लिए किया जाता है तथा भूसा जानवरों का एक स्वादिष्ट भोजन होता है। पतले छिलके वाली मटर की समूची फलियों और छिली हुई हरी मटर के दानों (shelled green peas) को सुखाकर (dehydrated) या डिब्बा बंद (canned) करके संरक्षित किया जाता है जिसका प्रयोग बाद में सब्जी बनाने के लिए किया जाता है।
मटर एक पोषक तत्वों की बहुत ही धनी सब्जी होती है, जिसमें पाचनशील प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट्स तथा विटामिन पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं। इसमें खनिज पदार्थ की पर्याप्त मात्रा nhi पाई जाती है। घर में आवश्यकता के लिए थोड़ी मात्रा में काम आने की पुष्टि से और व्यवहारिक दृष्टि से भी यह अत्यधिक लाभ पहुंचाने वाली फसल है।
मटर का उत्पत्ति स्थान एवं इतिहास
वैज्ञानिकों के अनुसार विभिन्न वर्ग की मटर का जन्म स्थान भिन्न-भिन्न देश हैं। पाइसम आरवेन्स वर्ग के पौधे इटली में जंगली पौधों के रूप में पाए जाते हैं। कुछ वैज्ञानिक मटर को दक्षिण यूरोप व उत्तरी अफ्रीका के बीच भूमध्य सागर के तटवर्ती क्षेत्रों (इथोपिया) को मटर का जन्म स्थान मानते हैं। वेवीलोव (1926-35) के अनुसार मटर का उत्पत्ति स्थान पश्चिम भारत तथा एशिया माइनर इटली के बीच होना चाहिए।
मटर का वितरण एवं क्षेत्रफल
विश्व के विभिन्न देशों में मटर की खेती सबसे अधिक क्षेत्र पर रुस में की जाती है। विश्व के कुल उत्पादन की आधे से अधिक मटर रूस में उगाई जाती है। मटर की खेती करने वाले अन्य देशों में भारत, रूमानिया, अमेरिका, हंगरी, चैकोस्लोवाकिया, जर्मनी, कोलम्बिया, पौलेण्ड व स्पेन आदि देशों के नाम विश्व उल्लेखनीय है।
विश्व में लगभग 68 लाख हेक्टेयर भूमि में मटर की खेती की जाती है। विश्व में मटर की खेती की औसत 9.22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। भारत में मटर की खेती के अन्दर 1999-2000 में लगभग 7.96 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल एवं कुल उत्पादन लगभग 8.24 लाख टन औसत उपज 1035 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी।
उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, राजस्थान, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल मटर की खेती करने वाले प्रमुख प्रांत हैं। उत्तर प्रदेश में मटर की खेती के अंतर्गत क्षेत्रफल 1999-2000 में 4.23 लाख हेक्टेयर, उत्पादन 5.86 लाख टन व औसत उपज प्रति हेक्टेयर 1385 किलोग्राम थी। उत्तर प्रदेश में मटर की खेती मुख्यत: पश्चिमी तथा पूर्वी क्षेत्रों, विशेष रुप से आगरा, गोरखपुर व फैजाबाद क्षेत्रों में की जाती है।
मटर की खेती के लिए उचित जलवायु
मटर की फसल के लिए ठण्डी और अर्धशुष्क जलवायु की आवश्यकता होती है, इसी कारण से हमारे देश में मटर की खेती रबी की ऋतु में की जाती है। जहां पर वार्षिक वर्षा 60 से 80 सेंटीमीटर तक होती है वहां पर मटर की फसल सफलतापूर्वक उगाई जाती है। मटर के पौधों की वृद्धि के समय यदि वर्षा हो जाती है तो यह पौधों के लिए अत्यंत हानिकारक होती है।
अतः मटर के पौधों को वृद्धि काल के समय कम तापक्रम की आवश्यकता होती है, परंतु फसल पर पाले का अत्यंत हानिकारक प्रभाव पड़ता है। पौधों की वृद्धि की विभिन्न आवश्यकताओं पर 55° से 75° F तापक्रम अनुकूल होता है। मटर के पौधों को वृद्धि काल में नम और ठंडी जलवायु की आवश्यकता होती है तथा फसल के पकने के समय अपेक्षाकृत तक कुछ उच्च तापक्रम एवं शुष्क जलवायु की आवश्यकता होती है।
फलियां बनने की प्रारंभिक अवस्था में उच्च तापक्रम एवं शुष्क जलवायु का हानिकारक प्रभाव पड़ता है क्योंकि फलियों में दाने भली प्रकार नहीं बन पाते और अधिक आर्द्रता वाले मौसम में मटर में चूर्णी फफूंदी रोग लगने की संभावना बढ़ जाती है परंतु जाड़े की वर्षा से असिंचित फसल को लाभ होता है।
मटर की खेती के लिए उचित भूमि
मटर दलहनी फसल होने के कारण यह सभी प्रकार की कृषि योग्य भूमियों जिनमें उपयुक्त मात्रा में नमी उपलब्ध हो, आसानी से उगाई जा सकती है। मटर की खेती के लिए मटियार दोमट तथा दोमट भूमि उत्तम रहती है। बलुअर दोमट भूमियों में भी सिंचाई की उचित सुविधा उपलब्ध होने पर मटर की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।
कछार क्षेत्रों की भूमियों में पानी सूख जाने के पश्चात भी मटर की खेती नहीं की जा सकती है। मटर की खेती के लिए भूमि का पीएच मान (ph) सम (natural) हो, तो उपयुक्त होती है। विशेष रुप से दाने के लिए उगाई गई फसल के लिए अधिक उपजाऊ भूमि अधिक लाभदायक नहीं होती है क्योंकि अधिक उपजाऊ भूमियों में पौधों के वानस्पतिक वृद्धि अधिक होती है जिसके कारण पौधों के गिरने की संभावना बढ़ जाती है। परिणामस्वरूप फलियों तथा दानों की उपज कम प्राप्त होती है।
अम्लीय तथा क्षारीय मृदा में भी फसल की अच्छी वृद्धि नहीं होती है। अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए भूमि में जलनिकास का उचित प्रबंधन होना चाहिए ताकि मृदा में वायु का आवागमन भली-भांति संपन्न हो सके। जिससे कि राइजोबियम बैक्टीरिया की क्रियाशीलता यथोचित बनी रहे तथा ज्यादा से ज्यादा मात्रा में वायुमण्डलीय नत्रजन का स्थिरीकरण हो सके।
मटर का वानस्पतिक वर्गीकरण | Botanical classification of pea in hindi
वानस्पतिक नाम - पाइसम स्पीसीज (Pisum species)
कुल (Family) - लेग्युमिनेसी (Leguminaceae)
उप कुल (Sub family) - पेपीलियोनेसी (Papelionaceae)
गुणसूत्र संख्या - 2n = 14
मटर की दो प्रमुख जातियां हैं -
- सफेद फूल वाली गार्डन पी या टेबिल पी (Pisum sativum var. hortance)
- देशी मटर (Pisum sativum var. arvense) जिसे फील्ड पी भी कहते हैं।
मटर की पाइसम सटाइवम जाति को व्यवहारिक दृष्टिकोण से निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है -
पाइसम सेकरेटम ( Pisum saccharatum )
इसकी फलियों के छिलके में या तो कोई भी भीतरी झिल्ली नहीं होती अथवा एक झिल्ली बहुत पतली होती है। इनमें निम्न किस्में आती हैं -
- पतले छिलके वाली जातियां
- पतले छिलके वाली जातियां ( Smooth seed type )
- झुर्रीदार बीज वाली जातियां ( Wrinkled seed type )
मोटे छिलके वाली जातियां -
- चिकने बीच वाली जातियां
- झुर्रीदार बीज वाली जातियां
पाइसम पैकीलोबम ( Pisum pachylobam ) -
इस किस्म में फलियों के छिलकों में एक भली-भांति विकसित भीतरी झिल्ली लगी रहती है। इसमें निम्न किस्में सम्मिलित की जाती है -
- पतले छिलके वाली जातियां
- चिकने बीच वाली जातियां
- झुर्रीदार बीज वाली जातियां
सेकेरेटम एवं पेकीलोबम के सभी पतले छिलके व झुर्रीदार बीजों वाले वर्गों को गार्डन पी (garden pea) व शेष सभी वर्गों फील्ड पी (field pea) में सम्मिलित करते हैं।
गार्डन पी (garden pea) को सब्जी के लिए व फील्ड पी (field pea) को दाल, चारे व हरी खाद के लिए प्रयोग में लाते हैं।
सब्जी वाली मटर (Table Pea) की जातियां
• आर्केल
• बोनविले
• अर्ली बैजर
• अर्ली दिसम्बर
• असौजी
• पन्त उपहार
• जवाहर मटर
• टा. 19
• टा. 56
• एन. पी. 29
• मध्यम
दाल वाली मटर की (Field Pea) उन्नतशील जातियां
• टाइप 163
• रचना (162×T. 10)
• वी. एल. 1
• स्वर्ण रेखा
• पी. जी. 3
• न. 6113 व न. 6115
• ई. सी. 33866
• हंस
• डी. एम. आर. 11
• मालवीय मटर 15
• पूसा प्रभात
• अम्बिका
• पूसा पन्ना
• पूसा युक्ता
• IPFD 99-13
• रचना
• पन्त. पी. 5
मटर की खेती के लिए भूमि की तैयारी कैसे करें?
खरीफ की फसल से खेत खाली होते ही एक गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से की जाती है। इसके बाद तीन-चार बार हैरो या देशी हल से खेत की जुताई की जाती है। बुवाई के समय भूमि में पर्याप्त नमी का होना अति आवश्यक होता है। नमी की कमी होने पर अंतिम जुताई से पहले पलेवा कर देना चाहिए।
मटर की खेती के लिए आवश्यक बीजदर की मात्रा कितनी होती है
मटर की खेती के लिए बीज दर बोने के समय व प्रयोग की जाने वाली जाति के अनुसार 60-120 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता पड़ती है। दाने वाली मटर 75-100 किलोग्राम व सब्जी वाली मटर ( आर्केल, अर्ली दिसम्बर, अर्ली बैजर 100-120 किलोग्राम व बोनविले जाति का बीज 70-80 किलोग्राम ) प्रति हेक्टेयर की दर से बोते हैं।
मटर की खेती के लिए बीजों का अन्तरण
मटर की खेती के लिए बीजों का अन्तरण उचित समय पर बोई गई फसल के लिए पंक्ति की दूरी 30 सेंटीमीटर एवं पौधे से पौधे की दूरी 4-5 सेंटीमीटर होनी चाहिए। इससे उपज में अच्छी वृद्धि होती है।
मटर के बीज का बीजोपचार
हमें खेतों में बीज हमेशा प्रमाणित एवं उपचारित ही बोने चाहिए। बीज को 0.25% की दर से कैप्टान या थायराम से उपचारित किया जा सकता है। अच्छे परिणाम हेतु बीजों को हमेशा वीटावैक्स नामक systemic कवकनाशी 2.5% किग्रा. बीज की दर से उपचारित करना चाहिए जिससे कि रोगों से छुटकारा पाया जा सके।
मटर की बुवाई का समय -
- उत्तरी भारत में दाल वाली मटर की बुवाई का उत्तम समय 15-30 अक्टूबर तक है। धान व कपास की फसल के खेत में बुवाई देर तक भी की जाती है।
- देर से बुवाई करने पर उपज में अधिक मात्रा में कमी आ जाती है। हरी फलियों, ( सब्जी ) के लिए बुवाई 20 अक्टूबर से 15 नवंबर तक करना लाभदायक रहता है। विलम्ब से बुवाई करने पर वानस्पतिक वृद्धि के लिए पर्याप्त समय न मिल पाने के कारण उपज पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
मटर के बीज की बुवाई की विधि
अधिकतर बुवाई हल के द्वारा कूँडों में की जाती है। हल के द्वारा 30 सेंटीमीटर की दूरी पर कूँड तैयार कर लिए जाते हैं व कूँडों में बीज की बुवाई कर देते हैं। आजकल बुवाई सीडड्रिल के द्वारा भी की जाने लगी है। इसमें पौधों के बीच का अंतर 5-7 सेंमी. रखते हैं। बीजों को 4-5 सेंटीमीटर की गहराई पर बोते है। लेकिन हमारे यहां पर छिड़काव विधि द्वारा अधिक मात्रा में बुवाई की जाती है। इसलिए हमारे यहां पर छिड़काव विधि द्वारा बुवाई अधिक प्रचलित है।
मटर की खेती के लिए आवश्यक खाद एवं उर्वरक
मटर की फसल दलहनी वर्ग में आती है। अतः इसे नत्रजन की विशेष आवश्यकता नहीं होती है। प्रारंभिक अवस्था में राइजोबियम बैक्टीरिया के क्रियाशील होने तक 10-20 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त 50-60 किलोग्राम फास्फोरस व 35-40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना आवश्यक होता है। नत्रजन, फास्फोरस व पोटाश उर्वरक बुवाई के समय ही खेत में दिए जाते हैं। उर्वरक सदैव बीज की कतारों से 5 सेमी. की दूरी पर बीज सतह से 3-5 सेंमी. की गहराई पर डालने चाहिए।
मटर की खेती के लिए आवश्यक सिंचाई
मटर की देशी व उन्नतशील जातियों में दो सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। शीतकालीन वर्षा हो जाने पर दूसरी सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती। पहली सिंचाई फूल निकलते समय बोने के 45 दिन बाद व दूसरी सिंचाई आवश्यकता पड़ने पर फली बनते समय, बोने के 60 दिन बाद करते हैं।
साधारणतया मटर को 20-25 हेक्टेयर सेंमी. पानी की आवश्यकता होती है। सिंचाई सदैव हल्की करनी चाहिए। अन्यथा ग्रंथिकाओं में स्थित राइजोबियम जीवाणुओं की क्रियाशीलता ऑक्सीजन के अभाव में शिथिल पड़ जाती है जिसके परिणामस्वरुप पौधों में वायुमण्डलीय नत्रजन का स्थिरीकरण बाधित हो जाने के कारण पौधे पीले पड़ जाते हैं।
मटर की फसल में निराई-गुड़ाई की आवश्यकता
मटर की फसल की बुवाई के 35-40 दिन तक फसल को खरपतवारों से बचाना अति आवश्यक होता है। आवश्यकतानुसार एक या दो निराई बोने के 30-35 दिन बाद करनी चाहिए। रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण करने के लिए 1 किग्रा. फ्लुक्लोरेलिन ( बेसालीन ) का 800-1000 ली. पानी में घोल बनाकर, फसल के अंकुरण से पहले, एक हेक्टेयर में छिड़ककर नम मिट्टी में 4-5 सेंमी. गहरे तक हैरो या कल्टीवेटर की सहायता से मिला देना चाहिए।
मटर की फसल में अपनाये जाने वाले फसल-चक्र
खरीफ की फसलें ज्वार, मक्का, बाजरा व धान आदि के बाद मटर की फसल साधारणतया ली जाती है। फसल चक्र का चयन यथा सम्भव विश्व परक होना चाहिए जिससे कि खरपतवार कीट व रोग नियंत्रण में सुविधा रहे तथा मृदा की उर्वरा शक्ति को संरक्षित रखा जा सके।
मटर की मिश्रित खेती
मटर को साधारणतया जई और जौ के साथ मिश्रित उगाते हैं। किन्हीं-किन्हीं क्षेत्रों में इसे गेहूं के साथ भी मिश्रित रूप से उगाते हैं। शरद ऋतु में बोई गई गन्ने की फसल में भी मटर की एक पंक्ति, गन्ने की दो पंक्तियों के बीच में उगाते हैं।जई और जौ के साथ मटर की मिश्रित खेती करने पर सफेद चूर्णी रोग के जीवाणुओं प्रकीर्णन नहीं होता है अतः रोग का कम प्रकोप होता है तथा फसल ( मटर ) के पौधों को जौ व जई के पौधों से सहारा मिलने के कारण फसल गिरने की संभावना कम होती है।
मटर की फसल की कटाई एवं मडाई
सब्जी के लिए बोई गई फसल जनवरी के मध्य से फरवरी के अंत तक फलियां देती है। फलियों को 10-12 दिन के अंतर पर, तीन-चार बार में तोड़ते हैं। अगेती जातियां, जैसे अर्ली दिसंबर, दिसंबर के अंत तक फलियां देने लगती है। फलियों को सब्जियों के लिए तोड़ते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि फलियों में दाने पूर्णतया भर गए हो और फलियों के छिलके का रंग हरा हो। छिलके का रंग पीला पड़ने पर बाजार में फलियों की कीमत कम मिलती है।
दाने के लिए बोई गई फसल सामान्य अवस्थाओं में 115-125 दिन में पककर तैयार हो जाती है। फसल मार्च व अप्रैल के प्रारंभ तक, बोने के समय के अनुसार व जलवायु संबंधी कारकों के प्रभाव के कारण काट ली जाती हैं। फलियां अधिक सूखने पर खेत में ही चटक सकती हैं अतः फसल को खेत में अधिक सुखाकर नहीं काटना चाहिए। हरी फसल की कटाई करने पर, सूखने पर दाने फलियों में चिपक जाते हैं, सिकुड़ते हैं तथा उपज में कमी आती है।
एक सप्ताह तक पौधों को सुखाकर बैलों को उस पर चलाकर मडाई का कार्य पूरा करते हैं। बीज को भंडार में रखते समय 3-4 दिन तक सुखाते हैं जिससे कि दानों में नमी की प्रतिशत 10-12 तक रह जाए।
मटर की फसल से प्राप्त उपज
मटर की फसल से हरी फलियों की पैदावार 80-120 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त हो जाती है। फलियां तोड़ने के पश्चात 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हरा चारा प्राप्त हो जाता है। दाने की औसत उपज 15-22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त हो जाती है। भूसे की उपज 50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त हो जाती है।
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